प्रतापगढ़ जिले की हस्तकला (थेवा कला)
प्रतापगढ़ की प्रसिद्ध हस्तकला थेवा कला हैं - इस हस्तकला में लाल, पीले, नीले और हरे कांच की एक परत पर सोने की परम्परागत नक्काशी और चित्रांकन किया जाता हैं। आभूषण (हार , कंगन, झुमके, टॉप्स , कड़े, अंगूठी, इयरिंग, बिछिया, बटन, सिगरेटकेस, टाइपिन , पायल, पेंडुलम आदि ) के अलावा, यह एक सजावटी वस्तु के रूप में भी उपयोग ली जाती हैं - ट्रे , फोटो फ्रेम , कार्ड बॉक्स , साड़ी पिन और घड़ी आदि । जिसके आविष्कार का श्रेय सुनार श्री नाथूजी सोनी को दिया जाता हैं।
19वीं सदी में मिस्टर हेनर भारत यात्रा के दौरान थेवा कला से काफी प्रभावित हुए थे। उनके यात्रा वृतांत में भी इसका उल्लेख है। सदियों पूर्व मालवा से श्री नाथू सोनी देवगढ़ में आ बसे थे। देवगढ़ तब प्रतापगढ़ रियासत की राजधानी था। महाराजा ने सोनी परिवार को ‘राज सोनी’ की उपाधि प्रदान की। 1775 में तत्कालीन नरेश सामंत सिंह ने इस परिवार को तीन सौ बीघा जमीन जागीर स्वरूप दी थी ।
"थेवा" नाम की उत्पत्ति इस कला के निर्माण की दो मुख्य प्रक्रियाओं 'थारना' और 'वाड़ा' से मिल कर हुई हैं।

इस कला के लिए राजसोनी परिवार को राष्ट्रपति और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जा चूका है।
लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स -2011 ’ और "इंडिया बुक ऑफ़ रिकार्ड्स -2015 " में भी दर्ज है।
भारत सरकार द्वारा, थेवा कला की प्रतिनिधि-संस्था राजस्थान थेवा कला संस्थान प्रतापगढ़ को इस अनूठी कला के संरक्षण में विशेषीेकरण के लिए वस्तुओं का भौगोलिक उपदर्शन (रजिस्ट्रीकरण तथा संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत् ज्योग्राफिकल इंडिकेशन संख्या का प्रमाण-पत्र प्रदान किया गया है। उल्लेखनीय है कि ज्योग्राफिकल इंडीकेशन किसी उत्पाद को उसकी स्थान विशेष में उत्पत्ति एवं प्रचलन के साथ विशेष भौगोलिक गुणवत्ता एवं पहचान के लिए दिया जाता है।
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